Jitiya Vrat Katha: जितिया (जीवित्पुत्रिका) व्रत कथा 2024

Jitiya Vrat Katha: जितिया (जीवित्पुत्रिका) व्रत कथा 2024

Jitiya Vrat Katha: जीवित्पुत्रिका व्रत (जितिया व्रत) की सम्पूर्ण कथा इस कथा का पाठ करने से दीर्घायु होती है संतान, राजा जैसा बीतता है जीवन

Jitiya Vrat Katha: जीवित्पुत्रिका व्रत (जितिया व्रत) की सम्पूर्ण कथा इस कथा का पाठ करने से दीर्घायु होती है संतान, राजा जैसा बीतता है

जीवन जीवित्पुत्रिका व्रत जिसे जितिया भी कहते हैं, मुख्यतः पुत्रों की दीर्घायु और कुशलता के लिए माताओं द्वारा किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण व्रत है।

यह व्रत आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है। मान्यता है कि इस व्रत के करने से संतान की आयु बढ़ती है

और उनके जीवन में सुख, समृद्धि और सफलता का आगमन होता है। व्रत के दौरान भगवान जीमूतवाहन की पूजा की जाती है, जो अपने अद्वितीय त्याग और दया के लिए विख्यात हैं।

Jitiya Vrat Katha: जीवित्पुत्रिका व्रत (जितिया व्रत) की सम्पूर्ण कथा का आरंभ

यह व्रत कथा प्राचीन काल से प्रचलित है। नैमिषारण्य के निवासी ऋषियों ने सूतजी से पूछा कि कलिकाल में लोग अपने पुत्रों की लंबी आयु कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं।

इस प्रश्न के उत्तर में सूतजी ने जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनाई। उन्होंने कहा कि द्वापर युग के अंत और कलियुग के आरंभ में स्त्रियों के मन में यह चिंता उत्पन्न हुई कि कलियुग में उनके पुत्र दीर्घायु नहीं होंगे।

वे सभी शोकाकुल होकर विचार करने लगीं कि इस युग में किस प्रकार उनकी संतान जीवित रह सकती हैं। जब वे इस विषय पर एकमत नहीं हो सकीं, तब वे गौतम ऋषि के पास गईं और उनसे उपाय पूछने लगीं।

गौतम ऋषि का उत्तर (Jitiya Vrat Katha)

गौतम ऋषि ने स्त्रियों की बात सुनकर उन्हें एक पुरानी कथा सुनाई। उन्होंने कहा, “महाभारत युद्ध के पश्चात जब द्रौपदी अपने पुत्रों की मृत्यु से दुखी थीं, तो वे अपने सखियों के साथ ब्राह्मण श्रेष्ठ धौम्य के पास गईं। धौम्य से उन्होंने यह पूछा कि किस उपाय से उनके पुत्र दीर्घायु हो सकते हैं। धौम्य ने उन्हें राजा जीमूतवाहन की कथा सुनाई।”

राजा जीमूतवाहन की कथा

राजा जीमूतवाहन एक धर्मात्मा, दयालु और परोपकारी राजा थे। वह सत्यवादी, धर्म के पालनकर्ता और प्रजा के हित के लिए सदैव तत्पर रहते थे। एक बार वे अपनी पत्नी के साथ अपनी ससुराल गए। वहाँ एक रात उन्होंने एक स्त्री को रोते हुए देखा। वह स्त्री अपने मरे हुए पुत्र का विलाप कर रही थी और कह रही थी, “हाय, मेरे सामने मेरा पुत्र मर गया, अब मैं कैसे जीवित रहूँगी।”

राजा जीमूतवाहन ने उस स्त्री के पास जाकर पूछा, “माता, तुम्हारा पुत्र कैसे मरा?” स्त्री ने उत्तर दिया, “गरुड़ प्रतिदिन आकर गाँव के बच्चों को खा जाता है। आज मेरा पुत्र उसका शिकार बन गया है।” यह सुनकर राजा का हृदय करुणा से भर गया। उन्होंने उस स्त्री से कहा, “माता, तुम चिंता मत करो। मैं तुम्हारे पुत्र को बचाने का प्रयास करूंगा।”

राजा का बलिदान

राजा जीमूतवाहन ने उस स्त्री की रक्षा के लिए गरुड़ से सामना करने का निश्चय किया। अगले दिन, वे स्वयं गरुड़ के खाने के लिए उस स्थान पर चले गए जहाँ गरुड़ रोज आकर गाँव के बच्चों को खाता था। जब गरुड़ वहाँ आया और राजा जीमूतवाहन को देखा, तो उसने उन्हें अपना भोजन समझा और उन पर झपट पड़ा। राजा ने गरुड़ से कहा, “हे पक्षिराज, तुम मुझे खा सकते हो, लेकिन कृपया अब से गाँव के बच्चों को मत खाना।”

गरुड़ ने राजा का बायाँ अंग खा लिया, लेकिन राजा ने बिना किसी भय के अपना दाहिना अंग भी उनके सामने कर दिया। राजा के इस अद्वितीय त्याग को देखकर गरुड़ आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने राजा से पूछा, “तुम कौन हो? ऐसा दयालु और वीर मनुष्य मैंने आज तक नहीं देखा। तुम निश्चित ही कोई देवता हो। अपना परिचय दो।”

राजा ने कहा, “मैं एक साधारण मनुष्य हूँ। मेरा नाम जीमूतवाहन है और मैं सूर्यवंशी हूँ। मेरी माता का नाम शैव्या और पिता का नाम शालिवाहन है।”

गरुड़ का वरदान

राजा जीमूतवाहन की दया और त्याग से प्रभावित होकर गरुड़ ने उनसे कहा, “हे महाभाग, मैं तुम्हारे त्याग से अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे वर मांग सकते हो।” राजा ने कहा, “यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो कृपया अब से गाँव के बच्चों को मत खाइए। जो बच्चे अब तक मारे गए हैं, उन्हें पुनः जीवन दान दें।” गरुड़ ने यह वरदान स्वीकार कर लिया। उन्होंने अमृत मंगवाकर मरे हुए बच्चों की हड्डियों पर उसे छिड़का, जिससे सभी बच्चे पुनः जीवित हो गए।

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जीवित्पुत्रिका व्रत का आरंभ

गरुड़ ने राजा जीमूतवाहन से कहा, “आज आश्विन मास की अष्टमी तिथि है। तुमने इस दिन प्रजा के बच्चों को जीवनदान दिया है। इसलिए इस दिन को पवित्र मानकर जो स्त्रियाँ तुम्हारी पूजा करेंगी और इस व्रत का पालन करेंगी, उनकी संताने दीर्घायु होंगी और उन्हें कभी किसी प्रकार का दुख नहीं झेलना पड़ेगा।”

गरुड़ ने राजा जीमूतवाहन को आशीर्वाद दिया और वहाँ से विदा ली। राजा भी अपनी पत्नी के साथ अपने राज्य में लौट आए।

द्रौपदी का व्रत

ब्राह्मण धौम्य से यह कथा सुनने के बाद, द्रौपदी ने भी इस व्रत को विधिपूर्वक किया, जिससे उनके पुत्र दीर्घायु हुए। तभी से यह व्रत स्त्रियों में प्रचलित हो गया और इसे जीवित्पुत्रिका व्रत के रूप में जाना जाने लगा।

व्रत की महिमा

इस व्रत को करने से माताओं को यह विश्वास होता है कि उनकी संतान को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा और वे दीर्घायु होंगी। व्रत में माता अपने पुत्रों की कुशलता और लंबी आयु के लिए भगवान जीमूतवाहन की पूजा करती हैं। मान्यता है कि इस व्रत की कथा सुनने और विधिपूर्वक व्रत करने से संतान की रक्षा होती है और उनके जीवन में सुख-समृद्धि आती है।

व्रत का विधान

  1. व्रत का संकल्प: इस व्रत में माताएं संतान की लंबी आयु के लिए उपवास करती हैं। व्रत की शुरुआत से पहले भगवान जीमूतवाहन की कथा सुनकर संकल्प लिया जाता है।
  2. कुश की आकृति बनाना: इस व्रत में कुश (एक प्रकार की घास) से भगवान जीमूतवाहन की आकृति बनाई जाती है और उसकी पूजा की जाती है।
  3. पूजन और कथा का पाठ: पूजा के दौरान भगवान जीमूतवाहन की विधिपूर्वक पूजा की जाती है और उनकी व्रत कथा का पाठ किया जाता है।
  4. उपवास और पारण: इस दिन माताएं निराहार रहती हैं और अगले दिन नवमी को पारण करती हैं।

अन्य कथाएँ

कथा के अंत में यह कहा गया है कि जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा को सुनने या सुनाने से संतान की रक्षा होती है। इस व्रत के नियमों का पालन करने से स्त्रियों को चिरंजीवी संताने प्राप्त होती हैं और उनका सौभाग्य बढ़ता है

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